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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार्ग को ग्रहण किया है। उसने गृहस्थी को कीचड़ का कमल बनाना चाहा है।

जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वासनाओं का प्राबल्य रहता है। बचपन मिठाइयों का समय है, बुढा़पा लोभ का, यौवन प्रेम और लालसाओं का समय है। इस अवस्था में मीनाबाजार की सैर मन में विप्लव मचा देती है। जो सुदृढ़ हैं, लज्जाशील व भावशून्य है, वह संभल जाते हैं। शेष फिसलते और गिर पड़ते हैं।

शराब की दुकानों को हम बस्ती से दूर रखने का यत्न करते हैं, जुएखाने से भी हम घृणा करते हैं, लेकिन वेश्याओं की दुकानों को हम सुसज्जित कोठों पर, चौक बाजारों से ठाट से सजाते हैं। यह पापोत्तेजना नहीं तो और क्या है?

बाजार की साधारण वस्तुओं में कितना आकर्षण है। हम उन पर लट्टू हो जाते हैं और कोई आवश्यकता न होने पर भी उन्हें ले लेते हैं। तब वह कौन-सा हृदय है, जो रूप-राशि जैसे अमूल्य रत्न पर मर न मिटेगा? क्या हम इतना भी नहीं जानते?

विपक्षी कहता है, यह व्यर्थ की शंका है। सहस्रों युवक नित्य शहरों में घूमते रहते हैं, किन्तु उनमें से विरला ही कोई बिगड़ता है। वह मानव-पतन का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहता है। किंतु उसे मालूम नहीं कि वायु की भांति दुर्बलता भी एक अदृश्य वस्तु है, जिसका ज्ञान उसके कर्म से ही हो सकता है। हम इतने निर्लज्ज, इतने साहस-रहित क्यों हैं। हममें आत्मगौरव का इतना अभाव क्यों है? हमारी निर्जीवता का क्या कारण है? वह मानसिक दुर्बलता के लक्षण हैं।

इसलिए आवश्यक है कि इन विष-भरी नागिनों को आबादी से दूर किसी पृथक् स्थान में रखा जाए। तब उन निद्यं स्थानों की ओर सैर करने को जाते हुए हमें संकोच होगा। यदि वह आबादी से दूर हों और वहां घूमने के लिए किसी बहाने की गुंजाइश न हो, तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होंगे, जो इस मीनाबाजार में कदम रखने का साहस कर सकें।

कई महीने बीत गए। वर्षाकाल आ पहुंचा। मेलों-ठेलों की धूम मच गई। सदन बांकी सज-धज बनाए मनचले घोड़े पर चारों ओर घूमा करता। उसके हृदय में प्रेम-लालसा की एक आग-सी जलती रहती थी। अब वह इतना निःशंक हो गया था कि दालमंडी में घोड़े से उतरकर तंबोलियों की दुकानों पर पान खाने बैठ जाता। वह समझते, यह कोई बिगड़ा हुआ रईसजादा है। उससे रूप-हाट की नई-नई घटनाओं का वर्णन करते। गाने में कौन-सी अच्छी है और सुंदरता में अद्वितीय है, इसकी चर्चा छिड़ जाती। इस बाजार में नित्य वह चर्चा रहती। सदन इन बातों को चाव से सुनता। अब तक वह कुछ रसज्ञ हो गया था। पहले जो गजलें निरर्थक मालूम होती थीं, उन्हें सुनकर अब उसके हृदय का एक-एक तार सितार की भांति गूंजने लगता था। संगीत के मधुर स्वर उसे उन्मत्त कर देते, बड़ी कठिनता से वह अपने को कोठों पर चढ़ने से रोक पाता।

पद्मसिंह सदन को फैशनेबुल तो बनाना चाहते थे, लेकिन उसका बांकपन उनकी आंखों में खटकता था। वह नित्य वायुसेवन करने जाते, पर सदन उन्हें पार्क या मैदान में कभी न मिलता। वह सोचते कि यह रोज कहां घूमने जाता है। कहीं उसे दालमंडी की हवा तो नहीं लगी?

उन्होंने दो-तीन बार सदन को दालमंडी में खड़े देखा। उन्हें देखते ही सदन चट एक दुकान पर बैठ जाता और कुछ-न-कुछ खरीदने लगता। शर्माजी उसे देखते और सिर नीचा किए हुए निकल जाते। बहुत चाहते कि सदन को इधर आने से रोकें, किंतु लज्जावश कुछ न कह सकते।

एक दिन शर्माजी सैर करने जा रहे थे कि रास्ते में दो सज्जनों से भेंट हो गई। यह दोनों म्युनिसिपैलिटी के मेंबर थे। एक का नाम था अबुलवफा, दूसरे का नाम अब्दुल्लतीफ। ये दोनों फिटन पर सैर करने जा रहे थे। शर्माजी को देखते ही रुक गए।

अबुलवफा बोले– आइए जनाब! आप ही का जिक्र हो रहा था। आइए, कुछ दूर साथ ही चलिए।

शर्माजी ने उत्तर दिया– मैं इस समय घूमा करता हूं, क्षमा कीजिए।

अबुलवफा– अजी, आपसे एक खास बात कहनी है। हम तो आपके दौलतखाने पर हाजिर होने वाले थे।

इस आग्रह से विवश होकर शर्माजी फिटन पर बैठे।

अबुलवफा– वह खबर सुनाएं कि रूह फड़क उठे।

शर्माजी– फरमाइए तो।

अबुलवफा– आपकी महाराजिन सुमन ‘बाई’ हो गई।

अब्दुल्लतीफ– वल्लाह, हम आपके नजर इंतखाव के कायल हैं। अभी तीन-चार दिनों से ही उसने दालमंडी में बैठना शुरू किया है, लेकिन इतने में ही उसने सबका रंग मात कर दिया है। उसके सामने अब किसी का रंग ही नहीं जमता। उसके बालखाने के सामने रंगीन मिजाजों का अंबोह जमा रहता है। मुखड़ा गुलाब है और जिस्म तपाया हुआ कुंदन। जनाब, मैं आपसे अजरूये ईमान कहता हूं कि ऐसी दिलफरेबी सूरत मैंने न देखी थी।

अबुलवफा– भाई, उसे देखकर भी कोई पाकबाजी का दावा करे, तो उसका मुरीद हो जाऊं। ऐसे लाले बेबहा को गूदड़ से निकालना आप ही जैसे हुस्नशिनास का काम है।

अब्दुललतीफ– बला की जहीन मालूम होती है। अभी आपके यहां से निकले हुए उसे पांच-छह महीने से ज्यादा नहीं हुए होंगे, लेकिन कल उनका गाना सुना तो दंग रह गए। इस शहर में उसका सानी नहीं। किसी के गले में वह लोच और नजाकत नहीं है।

अबुलवफा– अजी, जहां जाता हूं, उसी की चर्चा सुनता हूं। लोगों पर जादू-सा हो गया है। सुनता हूं, सेठ बलभद्रदासजी की आमदरफ्त शुरू हो गई। चलिए, आज आप भी पुरानी मुलाकात ताजा कर आइए। आपकी तुफैल में हम भी फैज पा जाएंगे।

अब्दुललतीफ– हम आपको खींच ले चलेंगे, इस वक्त आपको हमारी खातिर करनी होगी।

शर्माजी इस समाचार को सुनकर खेद, लज्जा और ग्लानि के बोझ से इतने दब गए कि सिर भी न उठा सके। जिस बात का उन्हें भय था, वह अंत में पूरी होकर ही रही। उनका जी चाहता था कि कहीं एकांत में बैठकर इस दुर्घटना की आलोचना करें और निश्चय करें कि इसका कितना भार उनके सिर पर है। इस दुराग्रह पर कुछ खिन्न होकर बोले– मुझे क्षमा कीजिए, मैं न चल सकूंगा।

अबुलवफा– क्यों?

शर्माजी– इसलिए कि एक भले घर की स्त्री को इस दशा में देखना मैं सहन नहीं कर सकता। आप लोग मन में चाहे जो समझें, किंतु उसका मुझसे केवल इतना ही संबंध है कि मेरी स्त्री के पास आती-जाती थी।

अब्दुलललीफ– जनाब, यह पारसाई की बातें किसी वक्त के लिए उठा रखिए। हमने इसी कूची में उम्र काट दी है, और इस रूमुज को खूब समझते हैं। चलिए, आपकी सिफारिश से हमारा भला हो जाएगा।

शर्माजी से अब सब्र न हो सका। अधीर होकर बोले– मैं कह चुका कि मैं वहां न जाऊंगा। मुझे उतर जाने दीजिए।

अबुलवफा– और हम कह चुके कि जरूर ले चलेंगे। आपको हमारी खातिर से इतनी तकलीफ करनी पड़ेगी।

अब्दुललतीफ ने घोड़े को एक चाबुक लगाया। वह हवा हो गया। शर्माजी ने क्रोध से कहा– आप मेरा अपमान करना चाहते हैं?

अबुलवफा– जनाब, आखिर वजह भी तो कुछ होनी चाहिए। जरा देर में पहुंच जाते हैं। यह लीजिए, सड़क घूम गई है।

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